तीन साल पहले सितंबर में आदित्य सरपोतदार ने सोनाक्षी, रितेश देशमुख और तमाम दूसरे कलाकारों वाली ये फिल्म गुजरात के कच्छ इलाके में पूरी की और समझा गया कि फिल्म उसी साल सिनेमाघर खुलते ही रिलीज हो जाएगी। मामला थोड़े थोड़े दिन करके आगे खिसकता गया। फिल्म बनाने वाली कंपनी आरएसवीपी मूवी भी बीते तीन साल में धीरे धीरे खिसकर हाशिये पर पहुंचती गई और आज की तारीख में इस कंपनी का कोई नया काम होता दिखता भी नहीं है। यूं लगता है कि जैसे किसी की नजर सी लग गई हो। आरएसवीपी की नई फिल्म ‘काकूदा’ की कहानी भी ऐसी ही नजर लगने जैसी कहानी है।
मृत्यु का उत्सव मनाता ब्रजभाषी गांव
कहानी मथुरा के करीबी किसी काल्पनिक गांव रतोड़ी की है। कहा जाता है कि मंगलवार को यहां अगर किसी ने शाम सात बजे घर का छोटा दरवाजा खुला न छोड़ा तो उसके बाद घर के पुरुष को उसकी नजर लग जाती है। पहले कूबड़ निकलता है और 13 दिन बाद राम नाम सत्य। महिलाएं सारी नाक तक बह आए सिंदूर के साथ अगले दिन ही ‘यात्रा मंगलमय हो’ जैसा टूटी फूटी ब्रज भाषा सा गीत भी गाती है। पास में बैठे लोग खुशी खुशी भोज करते दिखते हैं। यूं लगता है कि गांव वालों ने इसे अपनी नियति मान लिया है और ‘काकूदा’ की लगी इस नजर को उत्सव।
मास्टर की दो बेटियों की चकरघिन्नी
इसी गांव में अंग्रेजी के एक मास्टर अपनी बेटी के ब्याह को लेकर परेशान हैं। बेटियां वैसे इनकी दो हैं। पर एक के बारे में सुनते ही लोग मुंह फेर लेते हैं और जिसके मुंह लोग लगना भी चाहते हैं, वह बेटी बहुत ही तेज है। मां-बाप को डराने के लिए बाथरूम का दरवाजा बंद कर खून बहाती है और अपने होने वाले दामाद से अंग्रेजी का निबंध सुनने की आशा रखने वाले मास्टर जी ऐसे हैं कि उन्हें खून और कपड़े के रंग में फर्क ही नहीं पता चलता। उनकी बिटिया का दिल गांव के हलवाई पर आया है। दोनों घरवालों को बिना बताए शादी भी कर लेते हैं, लेकिन शादी के ऐन दिन ही काकूदा की नजर इस नए नवेले दूल्हे को लग जाती है। कोशिश इलाज की भी होती है और फिर होती है एक ऐसे ‘घोस्ट हंटर’ की एंट्री, जो न हो तो फिल्म में और कुछ देखने लायक है भी नहीं।
सोना अब उतनी भी सोणा नहीं है..
आदित्य सरपोतदार मराठी के नामचीन निर्देशक हैं। हिंदी में रिलीज उनकी ताजा फिल्म ‘मुंजा’ सौ करोड़ी हो चुकी है और जी5 ने इसी फिल्म के चक्कर में अपने ग्राहकों को ‘काकूदा’ टिका दी है। ओटीटी की प्रचार टीम ने फिल्म का प्रचार अपनी पूरी ताकत लगाकर किया है। कोशिश ये भी की है कि किसी तरह सोनाक्षी के ताजा ताजा असली ब्याह के सहारे उनके इस फिल्मी ब्याह की कहानी दर्शक अपना लें, लेकिन सोनाक्षी ने अपने अभिनय का पूरा पराग जी लिया है। ‘हीरामंडी’ जैसी सीरीज ही उनके लिए अब ठीक हैं, जहां वह चरित्र भूमिकाएं निभाकर अपनी बढ़ती उम्र की ढलती चमक छुपा सकती हैं।
तीन साल से अटकी पड़ी फिल्म
तीन साल से रिलीज की राह तक रही फिल्म ‘काकूदा’ इसके साथ ही नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई फिल्म ‘वाइल्ड वाइल्ड पंजाब’ से फिर भी बेहतर है। ‘शुक्रगुजार’ जैसा ठेठ भर्ती का गाना न आया होता तो मैं भी ये फिल्म एक बार में पूरी देख सकता था, लेकिन फिल्म में रितेश की एंट्री के बाद से क्लाइमेक्स तक माहौल बना रहता है। बीच बीच में हालांकि काकूदा की कहानी कहने का जो तरीका है, वह थोड़ा फीचर फिल्म के हिसाब से उबाऊ है, लेकिन डरने का शौक ऐसा है कि दर्शक आखिर तक इसी उम्मीद में टिका रहता है कि शायद अब कुछ चौंकाने वाला हो जाए। लेकिन, लॉरेंस डि कुन्हा की सिनेमैटोग्राफी और गुलराज सिंह का म्यूजिक ऐसा कुछ करने में कामयाब हो नहीं पाया।
तीन साल पहले सितंबर में आदित्य सरपोतदार ने सोनाक्षी, रितेश देशमुख और तमाम दूसरे कलाकारों वाली ये फिल्म गुजरात के कच्छ इलाके में पूरी की और समझा गया कि फिल्म उसी साल सिनेमाघर खुलते ही रिलीज हो जाएगी। मामला थोड़े थोड़े दिन करके आगे खिसकता गया। फिल्म बनाने वाली कंपनी आरएसवीपी मूवी भी बीते तीन साल में धीरे धीरे खिसकर हाशिये पर पहुंचती गई और आज की तारीख में इस कंपनी का कोई नया काम होता दिखता भी नहीं है। यूं लगता है कि जैसे किसी की नजर सी लग गई हो। आरएसवीपी की नई फिल्म ‘काकूदा’ की कहानी भी ऐसी ही नजर लगने जैसी कहानी है।
मृत्यु का उत्सव मनाता ब्रजभाषी गांव
कहानी मथुरा के करीबी किसी काल्पनिक गांव रतोड़ी की है। कहा जाता है कि मंगलवार को यहां अगर किसी ने शाम सात बजे घर का छोटा दर